बुधवार, 25 जून 2008

श्रधांजलि, टीवी पत्रकारिता के भिश्मपितामः को

आज से ग्यारह बरस पहले ही हिन्दी पत्रकारिता ने अपना कोहिनूर हिरा खो दिया था । २७ जून १९९७ को एक महान पत्रकार की आकास्मक मोत ने पत्रकारिता से जुड़े लोगो की आखो में आसुओ का सैलाब छोड़ दिया था । सुरेंद्र प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के छोटे से गाव फतेहपुर से निकल कर पत्रकारिता को नए आयाम दिए । उनकी कर्मठता आत्मविश्वास और टीम बनाने की खूबी ने टीवी में उनका खूब साथ दिया जो आज सबसे बड़ा जनमध्यम है । और यही से बनती है वह सामाजिकता जिसने एसपी को बड़े सरोकार वाला पत्रकार बनाया । उनकी बड़ी चिंता हाशिये पर बैठे लोगो को लेकर रही यही उनकी सफलता और लोकप्रियता का सबब भी रहा। सच तो ये है की आज टीवी जिस दोराहे पर खड़ा है वह एस पी की जरुरत बड़ी शिदत से महसूस होती है ।

एस पी जमीनी पत्रकार थे ,उन्होंने समाज के सभी लोगो को अपनी लेकनी में जगह दी । बेलछी बिहार दलित उत्पीडन जैसा कांड तब के लोकल अखबारों से बे ख़बर रहा लेकिन रविवार के पन्नो पर उसे बराबर जगह मिलती रही । ये उनकी धर डर लेखनी का ही कमल था की उस पीड़ित दलित परिवार से मिलने पी ऍम इंदिरा गाधी को जन पड़ा । उनके शब्दों में इतनी ताकत थी की नुकड़ से लेकर राजनितिक गलियारे तक सब को सोचने को मजबूर कर देती । उनकी बाते सीधे अर्जुन के तीर की तरह लक्छ को साधती थी । रविवार के पन्नो पर उन्होंने कई नई प्रतिभाओ को खोजा ,,रविवार ने हिन्दी के पहले स्टार पत्रकार बनाये ।

इलेक्क्तानिक मिडिया की दुनिया में कदम रखते ही एस पी ने एक नया भूचाल सा ला दिया । एस पी बखूबी जानते थे की पाठक क्या पड़ना चाहता है और दर्शक क्या देखना उन्हें ख़बर की ख़बर थी । दूरदर्शन की चुप्पी को तोड़ते हुए आधे घंटे के आज तक ने टीवी पत्रकारिता में नई जान फुक दी थी । आज तक भारतीय दर्शको के लिए नया स्वाद था जिसका जायका अब भी लोग नही भूले है । आज जिसमे तड़का मार के चोबीस घंटे परोसा जाता है ,पर इस २४ घंटे में वो बात कहा जो उस आधे घंटे में थी जिसमे एस पी ने समूचे विश्व को समेत दिया था ।

एस पी खबर की तह तक जा कर ही दम लेते थे , अन्धविश्वास और पाखंड के भी सकत खिलाफ थे । १९९५ में जब सारा देश भगवान की मूर्ति को दूध पिलाने में मशगूल था तब एस पी इस के पीचे के सच को जानने में जुटे थे । गोहर रजा ने जब धातु के जरिये दूध सोखने की बात कही तो एस पी ने अंधविश्वास के कुहासे में लिपटे हिंदुस्तान को रात ९:३० पर सूरज दिखाया । टीवी पर मोची के बसूले को दूध पिलाकर ये साबित कर दिया की ये इश्वर का चमत्कार नही है एक वैज्ञानिक नियम है , और सबके मुगालते दूर कर दिए । दिल्ली में प्रदुषण के चलते ३ करकने को हटाने की गटना पर , प्रदुषण पीड़ित बीमार मजदुर और करोडो कमाने वाले उद्योग पति को एक साथ एक स्टोरी में लाकर उन्होंने बुलेटिन देखने वालो के लिए एक सवाल छोड़ दिया । की फेसला आप करे दिल्ली किसकी है और किसकी होनी चाहिए ? आखरी टिप्पदी भी की '' की बीच का रास्ता नही होता ''

एस पी जी का आखरी बुलेटिन उपहार सिनेमा की त्रासदी पर था , जिसमे उन्होंने कहा था देखते रहिये आज तक कल रहे या न रहे

एस पी जिन में पत्रकारिता खेलती भी थी और खोलती भी . उन्होंने हमेशा हंस की भूमिका निभाई . इनकी पत्रकारिता से कई पत्रकारों ने तालीम ली , उन्होंने कई प्रबल पत्रकार बने जो आज उचे मुकाम पर आसीन है पर दुर्भाग्य ही है की वे अपने गुरु के सरोकारों से दूर है . अगर दूर नहीं होते तो आज पत्रकारिता इतनी बाजारू ना होती , भूत प्रेत नाग नागिन की कहानिया यु गंतो न चलती , न ही बाजारवाद का राछस भरी दुपहरिया मै पत्रकारिता को यूं निगलता . ऐसा नही की अस पी को इस का अन दजा नहीं था पर पत्रकारिता का चेहरा इतना बदल जायेगा इस की पारीकल्पना शायद उन्होंने नहीं की होगी . उन्होंने ये सोचा भी नहीं हो गा ही मरते हुए आदमी के मुह मै मायिक ठूस की ये पुचा जायेगा की आप kaesa mahasus कर आज अगर अस पी होते तो शायद ऐसा नहीं होता . वो इस की सबसे बड़े अवरोधक होते . अपने शिष्यों की तरह यु जुटने तो ना टेकते फिर भी ये सब देख कर वो कही नकाही दुखी जरुर हो रहे होगे की उनके द्वारा चोदी परेकारिता आज कहाँ है

मर गया लेकिन बहुत तू याद आता है ,तेरा हर बात पर कहना यूं होता तो क्या होता .
पर शायद तू होता तो यूं न होता .