सोमवार, 11 जनवरी 2010

विडम्बनओ का खेल , या खले की विडम्बना : हॉकी


विडम्बनओ का खेल , या खले की विडम्बना , इसे समझाना भी बड़ी विडम्बना है . ये फक्र की बात है की हॉकी हमारा रास्ट्रीय खेल है, लेकिन ये लानत है की आज वही अपना वजूद तलाशने की कोशिश में भटक रहा है . जिस खेल ने भारत को नयी पहचान दी, बादशाहत दी आज वही खेल मैदान पर धुल चाट रहा है . ये विडम्बना ही है की जिस खेल के खिलाडियो को मैदान जीत के लिए लड़ना चाहिए, उन्हें मैदान के बहार मौर्चा खोलने पर मजबूर किया जा रहा है . हॉकी की तारिख देखे तो आज की हालत पर रोना ही आयेगा , १९२८ से शुरू हुआ भारतीय हॉकी का सफ़र कई कीर्तिमान बनता चला . आज भी भारत के ओलंपिक खेलों में गोल्ड मेडिल की फेहरिस्त में हॉकी के सबसे ज्यादा पदक है . १९३२ के ओलंपिक खेलों में भारत ने अमेरिका को २४-१ से जो मत दी थी वो आज भी बरक़रार है . यही हॉकी है जिसने बर्लिन की जमीं पर हिटलर को चुनोती दी थी ओ०र जीत भी हासिल की . दादा ध्यानचंद को हॉकी की दुनिया का सर्वश्रेस्ट खिलाडी घोषित किया , भारत के पहले खिलाडी के रूप में दादा ध्यानचंद की मूर्ति भी विदेश ज़मीन वियना में लगाई गई . गुलामी से आज़ादी तक जीत का सिलसला हॉकी ने ही बरक़रार रखा . जब हॉकी के खिलाडी दुनियाभर में जीत का झंडा बुलंद कर रहे थे तो यक़ीनन आज़ादी के परवानो में भी नया जोश भरने का कम भी किया होगा . आज़ादी के साथ भारतीय हॉकी ने १९४८ में जीत का तोफा दिया , 1948 के लंदन ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम की जीत पर आजाद हिंदुस्तान का तिरंगा पहली बार लंदन के वेम्बली स्टेडियम में लहराया गया , सार्जनिक रूप से पहली बार विदेशी जमीं पर हमारा रास्ट्रीय गान 'जन-गण-मन' भी वही गूंजा . तब हिन्दुस्तानियों का सिना जरूर छोड़ा हुआ होगा . लेकिन आज के हालात बिलकुल बरक्स है . ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करना मुश्किल होता है. रास्ट्रीय खेल होने के बावजूद बहुत कम लोग ही इसे खेलना चाहते है . जो खेल्चुके वो कभी भी अपने बेटे , भाई जा जानने वालो को इस खेल को खेलने की सलाह नहीं देते . सरकार ने भी इसे बदने४ के लिए कोई खास कदम नहीं उठाये . भोपाल में हॉकी के नेशनल और इंटरनेश्नल खिलाडी आसानी से मिल जायेगे, जो देश के लिए खेलने और जीतने के बाद भी, उनके पास आज न दोलत है और न है नोकरी . एक अंतररास्त्री खिलाडी जिनकी भोपाल बाबेअली हॉकी स्टेडियम के बहार चाय की दुकान है, उनके अनुसार वो दादा ध्यानचंद के साथ विंग पर खेला करते थे . उनको दुकान क्यों खोलनी पड़ी ये बताने की जरुरत नहीं है . ये विडम्बना ही है कई एसे खिलाडी गुमनामी के अन्देरे में दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे है . रास्ट्रीय खेल होने के बावजूद हॉकी को तवज्जो क्यों नहीं दी जाती है , क्यों क्रिकट से हॉकी हार गया है जिसने इतने यश दिया हिन्दुस्तानियों को. जब नेता देश चलने के नाम पर सारी सुखसुविधा मिलने के बाद भी पगार लेते है तो फिर अपनी पढाई, अपनी आवारगी, घर तक छोड़ कर जो दिन रत मेहनत करता है, अपनी टीम अपने देश को जितने के लिए लड़ता है तो फिर उन खिलाडीओ को उसका वाजिब मेहनताना क्यों नहीं दिया जाता है . क्यों क्रिकेट के परपंच में कई नेता कूद पड़ते है , क्यों हॉकी को बचने कोई नेता नहीं आता ये विडम्बना ही है. इसमें पैसा नहीं है बाजार नहीं है . ये भी विडम्बना ही है की क्रिकेट का एक खिलाडी जितना टेक्स भर देता है , उतना पैसा पूरी हॉकी टीम साल भर में भी नहीं कमापति है. विदेशी दोरे के दोरान भी भारतीय हॉकी टीम पाकिस्तान से पाच गुना कम भत्ता मिलता है.

ऐसे में कल्पना करना की दिल्ली में होने वाले २०१० हॉकी वोल्ड कप में , हमारे खिलाडी कुछ कमाल दिखाय्र्गे कोरा स्वप्न ही होगा . वो खिलाडी क्या जीत पायेगा जिसका दिल और दिमागहार गया हो अपने देश के सिस्टम से .

चलो उठो कुछ करते है अपने रास्ट्रीय खेल हॉकी को बचाने के लिए .........