गुरुवार, 18 मार्च 2010

lलखनऊ‎ पर नीला साया, बेक़सूर माया

नई प्रविष्टियाँ सूचक" href="http://chitthajagat.in/?chittha=http://singhkharikhari.blogspot.com/&suchak=ha">
बीते दिनों टीवी वाले किसी नेले टापू को दिखा रहे थे और उसे लखनऊ‎ बता रहे थे . थोड़ी देर देख कर लगा की जो चोक चोराहे अपनी पुरानी ईमारत और अदभुत बनावट के लिए जाने जाते थे उनको जान कर नीली रोशनी में डुबोया गया था. जहाँ कभी पहले आप पहले आप कि रिवायत थी वहां से , हम ही हम है बाकि पानी कम है कि आवाजे सुने दे रही थी . टीवी पर लखनऊ कि इन तस्वीरों को देख कर लगा कि जिस लखनऊ में, मै गया था वो लखनऊ कुछ और ही था. उस लखनऊ को मेने दिन कि रौशनी में भी देखा था, और रात के अंधियारे में भी . लेकिन टीवी वाले जिस लखनऊ को दिखा रहे थे उसमे लखनऊ जेसी कोई बात नज़र नहीं आ रही थी. नीले रंग में डुबोये लखनऊ को देख कर मुझसे रहा नहीं गया मेने अपने मित्र को फ़ोन घुमा दिया. पंडित जी ये टीवी वाले जो लखनऊ दिखा रहे हैं क्या ये वही शहर है जहाँ तुम रहते हो जहाँ मै पिछले साल आया था . मायावी नगरी से किलस्ते हुए पंडितजी बोले हाँ ये वही निलखनऊ है . मुझे कुछ समझ न आरहा , अरे भैया यहाँ माया कि रैली होने वाली है लेकिन नील क्यों पोत दी गयी है, पंडित जी हस्ते हुए बोले ये क्या कम है कि माया ने हाथी नहीं दोडाये. उनकी बाते सुन कर मेने भी सोचा कि सस्ते में ही निपट गए . हाथी दोड़ा दिए जाते तो नीली रौशनी मै ना लाशे दिखती ना खून ही समझ मै आता.
नील में डूबी रात के पो फटते ही उसी लखनऊ से नयी खबर आने लगी. नीली रैली से कड़क कड़क हलके लाल नोट निकलने लगे . नीले नाटक कि नायिका माया को हजार हजार के नोटों कि माला पहनाई गई. ये खबर फैलते ही लखनऊ से दिल्ली तक सब जुट गए माला के नोट गिनने में. जिसे देखो वही सवाल करने लगा कि कितने करोड़ कि माला है , इतना पैसा कहाँ से आया, पैसा किसका है, कितने नोट लगे है माला में . अरे भैया क्या करोगे जान के, क्या फर्क पड़ता है कि पैसा किसका है ,किसी रईस कि तिजोरी का है , पार्टी कार्यकर्ता का है या फिर आम आदमी के हिस्से का है. और पता भी चल जाये तो क्या कर लोगे, क्या उखाड़ पाए हो अब तक माया के हाथी के पैर का एक भी नाखून . लोग पहली माला के नोट भी नहीं गिन पाए थे कि माया ने दूसरी नोटों कि माला पहन ली . कर लो जो कर सकते हो. कुछ को मिर्ची भी लग रही होगी, वो तर्क देंगे कि रोक तो लगा ही दी माये के पार्को पर . लेकिन भैया रोक लगा कर क्या उन हाथियों से वो पैसा बनोगे, जो पैसा उन्हें बनाने में खर्च हुआ है.
वाह रे माया तेरी माया... करोडो के शोख कोडी कि काया.... तेरे राज में नारी नीलम होती रही (बुंदेलखंड), लेकिन तू थी कि अपनी ही मूरत बनवाती रही, बहुजन से सर्वजन कि बरी आई तो बहन जी ने बता दिया कि दलितों, इंसानों से ज्यादा बेजान हाथी अजीज है . गरीब कि चमड़ी हड्डी से चिपकती गयी और बहन जी मोटे ताजे हाथी बनवाती चली गई . ये हाथी प्रेम ही है ऐसा नहीं होता तो करोडो के ना चलने वाले ना वोट डालने वाले हाथियों कि इतनी बड़ी बारात खड़ी नहीं करती. लेकिन गनीमत है कि ये हाथी बेजान है जान होती तो जाने क्या होता . अब कोई गरीब इन बेजान हाथियों को देखकर खुद ब खुद इसके नीचे दबता चला जाये तो इसमें बिचारी मायावती का क्या दोष.

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

1411बाघों को बच्चो के लिए ही सही बचा लो ,


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


मेरे शेरो उठो, चलो शेर बचाए. जंगल का राजा आज रंक बनकर अपने अकेलेपन से डर रहा है. शेर की माँ को किसी ने मार दिया , किसी ने उसके बाप की खाल को अपने घर में सजाने के लिए उतार लिया . अब तो शक हो रहा है की कहीं वो भी तो मारा न गया हो , जिसके बारे में हम यहाँ बात कर रहे है. सरकारी आकडे बता रहे है कि 1411 बाघ बचे है, सोचना तो इस पर भी होगा की वाकई इतने बचे भी है या नहीं. क्यों की वर्ष 2003 की अधिकारिक जानकारी के मुताबिक देश में बाधों की कुल संख्या का 23 प्रतिशत मध्यप्रदेश में मौजूद था। मध्यप्रदेश में बाघों की यह संख्या 712 बताई गई. जिसमे पन्ना टाइगर रिजर्व में सबसे ज्यादा शेर बताये जा रहे थे. सेन कमेटी ने पन्ना टाइगर रिजर्व की रिपोर्ट में खुलासा किया की अब वहां एक भी बाघ नहीं है. यह क्षेत्र वर्ष 2008 से ही बाघविहीन हो गया है. एसे में 1411 में कितनी सचाई है ये तो जंगल ही जानता है.
शेर जंगल का राजा था, है, और रहेगा भी , लेकिन फर्क
सिर्फ इतना ही होगा की बस किताबो में ही . कल तक जब वो दहाड़ता था , तो पूरा जंगल काप जाता था . आज उसकी दहाड़ में दर्द की आवाज़ आती है . कल तक उसके कदमो की आहट सुनते ही सब बचाओ बचाओ कर के भागते थे , आज वो ख़त्म होने की कगार पर है , लेकिन वो बचाओ बचाओ भी नहीं चिलाता , कमबख्त राजा जो ठहरा. आखिर वो कैसे अपने ही जंगल में अपनी जिंदगी की दुहाही मांगे , और मांगे भी तो किस्से उस इन्सान से जो आज धरती का सबसे खतरनाक जानवर बन बैठा है . जिसकी पैसे कमाने हवास और शोक जंगल के शेर को जंगल के साथ खाता और खत्म करता जा रहा है .
1411 बाघ हमारा रास्ट्रीय पशु भी है . दुनिया के सबसे ज्यादा बाघ हमारे देश में ही हैं. शायद बाघों को मालूम था की हम इन्हें इतना बड़ा सम्मान देगें तभी ये यहा आकर बसे . लेकिन अब ये हमारी इंसानियत देख कर शर्मिंदा होते होगे की राष्ट्रिय सम्मान देकर किस तरह इन्हें मारा जा रहा है, बचाने की कोशिस भी नहीं हो रही है. ये दुर्भाग्य की बात है शेर के लिए भी और हमारे लिए भी. सरकार ने भी इन्हें बचने की लिए योजना बनाई लेकिन अमलीजामा न पहना पाई . सरकारी रिकार्ड कुछ कहते और जंगल की कहानी कुछ और ही बाया करती . नेता के भरोसे इन्हें छोड़ा भी नहीं जा सकता . आज हालत इतने नाजुक है की अब जरा सी लपरवाही बरती तो बाघ तारीख में दर्ज हो जाएगे .

अब जरा सोचो की हम अपनी आने वाली नस्ल के लिए क्या छोड़ेगे, पन्नो पर बाघों के चित्र, विकिपीडिया पर उसकी जानकारी , कहानियो में शेर की बहदुरी के किस्से , शेर मार जायेगा लेकिन घास नहीं खायेगा जैसी कहावते, ज्यादा से उदार हुआ और मांग बड़ी तो कमाई के लिए एक अध् फिल्म बनादेगे .या फिर रास्ट्रीय चिन्ह के रूप में चार मुह वाला शेर छोड़ेगे . लेकिन जब आने वाली नस्ल में से ही कोई सिरफिरा हमारा रास्ट्रीय पशु बाघ को देखने कि जिद कर बैठा तो सोच लो क्या दिखाओगे ..... क्या समझोगे....... क्या कहोगे......... की हम तो गुम थे कमाने में हमने कुछ नहीं कर सके ? या फिर बाघ को सहेज के रखेगे........
फ़ेसला आप के ही हाथ है बीच का कोई रास्ता नहीं है, जंगल के लिए नहीं , बाघ के लिए, अपने लिए न सही, देश के लिए न सही बच्चो के लिए ही सही बचा लो बाघों को.




सोमवार, 11 जनवरी 2010

विडम्बनओ का खेल , या खले की विडम्बना : हॉकी


विडम्बनओ का खेल , या खले की विडम्बना , इसे समझाना भी बड़ी विडम्बना है . ये फक्र की बात है की हॉकी हमारा रास्ट्रीय खेल है, लेकिन ये लानत है की आज वही अपना वजूद तलाशने की कोशिश में भटक रहा है . जिस खेल ने भारत को नयी पहचान दी, बादशाहत दी आज वही खेल मैदान पर धुल चाट रहा है . ये विडम्बना ही है की जिस खेल के खिलाडियो को मैदान जीत के लिए लड़ना चाहिए, उन्हें मैदान के बहार मौर्चा खोलने पर मजबूर किया जा रहा है . हॉकी की तारिख देखे तो आज की हालत पर रोना ही आयेगा , १९२८ से शुरू हुआ भारतीय हॉकी का सफ़र कई कीर्तिमान बनता चला . आज भी भारत के ओलंपिक खेलों में गोल्ड मेडिल की फेहरिस्त में हॉकी के सबसे ज्यादा पदक है . १९३२ के ओलंपिक खेलों में भारत ने अमेरिका को २४-१ से जो मत दी थी वो आज भी बरक़रार है . यही हॉकी है जिसने बर्लिन की जमीं पर हिटलर को चुनोती दी थी ओ०र जीत भी हासिल की . दादा ध्यानचंद को हॉकी की दुनिया का सर्वश्रेस्ट खिलाडी घोषित किया , भारत के पहले खिलाडी के रूप में दादा ध्यानचंद की मूर्ति भी विदेश ज़मीन वियना में लगाई गई . गुलामी से आज़ादी तक जीत का सिलसला हॉकी ने ही बरक़रार रखा . जब हॉकी के खिलाडी दुनियाभर में जीत का झंडा बुलंद कर रहे थे तो यक़ीनन आज़ादी के परवानो में भी नया जोश भरने का कम भी किया होगा . आज़ादी के साथ भारतीय हॉकी ने १९४८ में जीत का तोफा दिया , 1948 के लंदन ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम की जीत पर आजाद हिंदुस्तान का तिरंगा पहली बार लंदन के वेम्बली स्टेडियम में लहराया गया , सार्जनिक रूप से पहली बार विदेशी जमीं पर हमारा रास्ट्रीय गान 'जन-गण-मन' भी वही गूंजा . तब हिन्दुस्तानियों का सिना जरूर छोड़ा हुआ होगा . लेकिन आज के हालात बिलकुल बरक्स है . ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करना मुश्किल होता है. रास्ट्रीय खेल होने के बावजूद बहुत कम लोग ही इसे खेलना चाहते है . जो खेल्चुके वो कभी भी अपने बेटे , भाई जा जानने वालो को इस खेल को खेलने की सलाह नहीं देते . सरकार ने भी इसे बदने४ के लिए कोई खास कदम नहीं उठाये . भोपाल में हॉकी के नेशनल और इंटरनेश्नल खिलाडी आसानी से मिल जायेगे, जो देश के लिए खेलने और जीतने के बाद भी, उनके पास आज न दोलत है और न है नोकरी . एक अंतररास्त्री खिलाडी जिनकी भोपाल बाबेअली हॉकी स्टेडियम के बहार चाय की दुकान है, उनके अनुसार वो दादा ध्यानचंद के साथ विंग पर खेला करते थे . उनको दुकान क्यों खोलनी पड़ी ये बताने की जरुरत नहीं है . ये विडम्बना ही है कई एसे खिलाडी गुमनामी के अन्देरे में दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे है . रास्ट्रीय खेल होने के बावजूद हॉकी को तवज्जो क्यों नहीं दी जाती है , क्यों क्रिकट से हॉकी हार गया है जिसने इतने यश दिया हिन्दुस्तानियों को. जब नेता देश चलने के नाम पर सारी सुखसुविधा मिलने के बाद भी पगार लेते है तो फिर अपनी पढाई, अपनी आवारगी, घर तक छोड़ कर जो दिन रत मेहनत करता है, अपनी टीम अपने देश को जितने के लिए लड़ता है तो फिर उन खिलाडीओ को उसका वाजिब मेहनताना क्यों नहीं दिया जाता है . क्यों क्रिकेट के परपंच में कई नेता कूद पड़ते है , क्यों हॉकी को बचने कोई नेता नहीं आता ये विडम्बना ही है. इसमें पैसा नहीं है बाजार नहीं है . ये भी विडम्बना ही है की क्रिकेट का एक खिलाडी जितना टेक्स भर देता है , उतना पैसा पूरी हॉकी टीम साल भर में भी नहीं कमापति है. विदेशी दोरे के दोरान भी भारतीय हॉकी टीम पाकिस्तान से पाच गुना कम भत्ता मिलता है.

ऐसे में कल्पना करना की दिल्ली में होने वाले २०१० हॉकी वोल्ड कप में , हमारे खिलाडी कुछ कमाल दिखाय्र्गे कोरा स्वप्न ही होगा . वो खिलाडी क्या जीत पायेगा जिसका दिल और दिमागहार गया हो अपने देश के सिस्टम से .

चलो उठो कुछ करते है अपने रास्ट्रीय खेल हॉकी को बचाने के लिए .........