मंगलवार, 18 सितंबर 2012

क्रिकेट डिप्लोमेसी! भारत एक कदम आगे या दो कदम पीछे

क्रिकेट डिप्लोमेसी! भारत एक कदम आगे या दो कदम पीछे 26/11 मुंबई हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान से बातचीत प़र विराम लगाते हुए सख्त फैसला लिया था की जब तक पाकिस्तान, मुंबई के हमलावरों को सजा नहीं देता तब तक उससे रिश्ते बेहतर होने की सम्भावना नहीं है . बेशक भारत के सख्त रुख और दुनिया भर की मुखालफत के बाद, पाकिस्तान बैक फुट प़र चला गया था. कसाब के रूप में जो सवाल भारत के पास है उसका जवाब पूछने प़र पाकिस्तान अब भी बगलें झाकने लगता है. मुंबई हमलो के साथ ही भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट श्रंखला प़र भी रोक लगा दी गयी थी , लेकिन हाल ही में BCCI ने भारत - पाकिस्तान के बीच क्रिकेट की शुरुआत करने का फैसला लिया है , जो ये सोचने प़र मजबूर करता है की ये सब BCCI पैसे कमाने के लिए कर रहा है या इसके पीछे दोनों देशो के रिश्ते बेहतर बनाने की भी कोई मंशा हैं ? या फिर किसी तीसरी ताकत का दबाव ? खेल मेल कराता है, लेकिन इसके लिए मन औए मंशा दोनों ही साफ होनी चाहिए, जो की पाकिस्तान की तरफ से नहीं लगती . खेल डिप्लोमेसी की शुरुवात 70 के दशक में हुई थी. जब अप्रैल 1971 में 31st वर्ल्ड टेबल टेनिस चैंपियंसशिप में अमेरिका और चाइना ने एक दूसरे के साथ खेलने का फैसला किया था , जिसे नाम दिया गया था पिंगपांग डिप्लोमेसी , जो काफी हद तक अमेरिका और चाइना को पास लाने में कामयाब हुई थी . इसके बाद व्यापार की बातें और कई मुलाकातें हुईं , लेकिन अमेरिका और चाइना हमसाया मुल्क नहीं हैं यही वहज है की इसकी तुलना, क्रिकेट डिप्लोमेसी से नहीं हो सकती. सितम्बर के पहले हफ्ते में भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्री इस्लामाबाद में मिले . दोनों मुल्को की मीडिया ने सौहार्दपूर्ण बातचीत और बेहतर रिश्तों के कसीदे पढ़े . पाकिस्तान की विदेश मंत्री हीना रब्बानी खर ने इतिहास को भुलाकर भविष्य की जानिब देखने की बात कही . जिस दौरान इस सौहार्दपूर्ण वातावरण में मेल मिलाप और स्वागत का मंचन हो रहा था, तक़रीबन उसी वक़्त लाहौर में मुंबई हमलों का मास्टर माइंड, जमात उद दावा का सरगना हाफिज़ सईद भारत के खिलाफ खुलेआम सड़को प़र ज़हर उगल रहा था , जैसे वो इससे पहले भी करता आया है . हाफिज़ सईद ने कहा की भारत के साथ ना तो तिजारत होगी और ना ही कोई बात, जैसा मौकिफ माजी में था ठीक वैसा ही आगे भी कायम रहेगा . उसकी बातो से साफ जाहिर होता है की वो अब भी भारत विरोधी साजिशों में लगा हुआ है जैसे 2008 और उससे पहले था . 2008 से लेकर अब तक हाफिज़ सईद प़र ऐसी कोई करवाई नहीं हुई जिसकी कल्पना भारत कर रहा था . उसे सिर्फ चंद दिनों तक नजरबंद रखा गया, उस नजरबंदी मे भी वो खुलेआम घूमता रहा , सड़कों की बजाय मस्जिद में भारत विरोधी भाषण देता रहा. 26/11 मुंबई हमलो को चार साल होने वाले हैं. इन चार सालो में पाकिस्तान ने ऐसा एक भी काम या कार्यवाई नहीं की जिसकी बुनियाद प़र उस मुल्क के साथ बेहतर ताल्लुकात रखे जाएँ. इन चार सालो मे जमात उद दावा और हाफिज़ सईद का दायरा कम होने की बजाय बढता ही गया . चार साल पहले मुंबई हमले के वक़्त जमात उद दावा सिर्फ एक कट्टरपंथी संगठन था लेकिन 4 साल बाद वो 40 जमातो वाला काउंसिल बन गया है , जिसमे पाकिस्तान की दहशतगर्द और सियासी जमाते शामिल हैं , जिसे नाम दिया गया है दिफ़ा ए पाकिस्तान काउंसिल, ये पूरी काउंसिल भारत विरोधी नजरिया रखती है . ISI और साबिक फौजियों की जमात भी इसमें शामिल है . हमारी इंटेलिजेंस एजेंसी अभी भी आगाह कर रही है की दहशतगर्द हमला करने की फ़िराक में हैं, लेकिन इसे जाने क्यों नज़र अंदाज किया जा रहा है. पाकिस्तान के साथ आसान वीसा पॉलिसी प़र हस्ताक्षर भी हो गए , वो सब भुला कर जैसा उसने 26/11 के वक़्त किया था . जब पाकिस्तान सख्त करवाई नहीं कर रहा है और ना ही करने का भरोसा दिला रहा है तो उस प़र भरोसा कैसे किया जा सकता है , ये सबसे बड़ा सवाल बना हुआ है संसद प़र हमले का गुनाहगार मौलाना मसूद अजहर अभी भी पाकिस्तान में है . लेकिन उस प़र कोई करवाई नहीं हुई . उसे तो अब माँगा भी नहीं जाता है, शायद हमारे नेता उसे भूल गए हैं . मुझे समझ नहीं आ रहा है की जो बातें , जो तल्खी भारत ने मुंबई हमले के वक़्त इख़्तियार की थी वो अब कहाँ है ? कहाँ गए वो वादे , जब ठोस करवाई ना होने तक और 26/11 साजिश में शामिल सभी गुनाहगारों को सजा ना देने तक दूरी की बात कही गई थी . क्या ये सब मिथ्या था ? फिलवक़्त तो यही लग रहा है . अगर ऐसा नहीं है तो क्यूँ क्रिकेट खेलने की बात कही जा रही है , जबकि पाकिस्तान अभी तक सभी शर्तो को पूरी करने की बजाय उसे नकारता आया है . यही वजह है , जो सोचने प़र मजबूर कर रही है की इस क्रिकेट कूटनीति में भारत एक कदम आगे बढ़ रहा है या दो कदम पीछे.

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

आरक्षण का स्वागत है !

आरक्षण का स्वागत है ! अगर 40 फिसद वोट पाने वाले दलित को सांसद बनाया जाये, विधायक बना दिया जाये, महापौर, पार्षद, सरपंच या फिर PM बना दिया जाये . बजाय उसके जो सवर्ण 80 फिसद वोट पाता है. करो बिल पास, की आने वाले 35 सालों तक राज्यसभा के सभी सांसद दलित होंगे . इन्ही परिस्थितियों में वो अपने समाज व जाती का उत्थान कर सकेगे . अन्यथा जो सियासत आरक्षण प़र खेली जा रही है उससे बीते 65 सालो में नतीजा कुछ नहीं निकला . अगर निकला होता तो शायद फिर से नए आरक्षण की जरुरत ना पड़ती. तय करो अब से जो भी भाजपा , कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी व क्षत्रिय पार्टी का अध्यक्ष होगा वो भी आने वाले 35 सालों तक दलित ही होगा. जो राजनेता देश के संविधान में संशोधन कर सकते है वो अपनी अपनी पार्टी के संविधान में संशोधन क्यो नहीं करते. इतने से कुछ ना होगा, तय करो की आने वाले 35 सालों तक जो व्यक्ति राष्ट्रपति बनेगा वो दलित होगा. तभी शायद SC, ST जैसे अति पिछड़े लोगो का उत्थान हो सकेगा. वो भी समाज में बराबरी या उससे ऊपर का दर्जा पाए सकेंगे . जिससे वो और उनके पूर्वज वंचित रह गए. लेकिन ये सब सिर्फ और ३५ बरसों तक ही, क्योंकी जो आज़ादी के 100 सालों बाद भी आरक्षण के बावजूद पिछड़ा रह जाता है उसका कुछ नहीं हो सकता. वैसे भी इस तरह का आरक्षण नहीं दिया जायेगा. क्योकि इससे चोट सीधे राजनेताओं को लगेगी. आरक्षण सिर्फ तुच्छ राजनीती का हिस्सा है . कोई उत्थान नहीं चाहता, ना ही कांग्रेस ना भाजपा , ना ही बसपा . सब के सब समाज को विभाजित करने और अपनी अपनी राजनीती की रोटिया सेक रहे हैं . अगर ऐसा नहीं है तो दस जनपथ को दलितों को दान कर देना चाहिए और स्वयं सोनिया गाँधी को सपरिवार दलितों की बस्ती में जाकर रहना चाहिए . बेशक उनकी सुरक्षा का पूरा इंतजाम हो , सुरक्षा तो झुग्गी मे भी हो सकती है लेकिन वहां वो सुविधा नहीं होगी . ये बात सिर्फ 10 जनपथ प़र ही नहीं, बल्कि हर उस नेता प़र लागू होती है जो हकीकत में दलितों का उत्थान चाहता है, लेकिन अफ़सोस अफोसोस घोर अफ़सोस , ऐसा कुछ नहीं होगा , ये सब राजनीती है . आरक्षण की ना..... ना.... वोट की !

गुरुवार, 18 मार्च 2010

lलखनऊ‎ पर नीला साया, बेक़सूर माया

नई प्रविष्टियाँ सूचक" href="http://chitthajagat.in/?chittha=http://singhkharikhari.blogspot.com/&suchak=ha">
बीते दिनों टीवी वाले किसी नेले टापू को दिखा रहे थे और उसे लखनऊ‎ बता रहे थे . थोड़ी देर देख कर लगा की जो चोक चोराहे अपनी पुरानी ईमारत और अदभुत बनावट के लिए जाने जाते थे उनको जान कर नीली रोशनी में डुबोया गया था. जहाँ कभी पहले आप पहले आप कि रिवायत थी वहां से , हम ही हम है बाकि पानी कम है कि आवाजे सुने दे रही थी . टीवी पर लखनऊ कि इन तस्वीरों को देख कर लगा कि जिस लखनऊ में, मै गया था वो लखनऊ कुछ और ही था. उस लखनऊ को मेने दिन कि रौशनी में भी देखा था, और रात के अंधियारे में भी . लेकिन टीवी वाले जिस लखनऊ को दिखा रहे थे उसमे लखनऊ जेसी कोई बात नज़र नहीं आ रही थी. नीले रंग में डुबोये लखनऊ को देख कर मुझसे रहा नहीं गया मेने अपने मित्र को फ़ोन घुमा दिया. पंडित जी ये टीवी वाले जो लखनऊ दिखा रहे हैं क्या ये वही शहर है जहाँ तुम रहते हो जहाँ मै पिछले साल आया था . मायावी नगरी से किलस्ते हुए पंडितजी बोले हाँ ये वही निलखनऊ है . मुझे कुछ समझ न आरहा , अरे भैया यहाँ माया कि रैली होने वाली है लेकिन नील क्यों पोत दी गयी है, पंडित जी हस्ते हुए बोले ये क्या कम है कि माया ने हाथी नहीं दोडाये. उनकी बाते सुन कर मेने भी सोचा कि सस्ते में ही निपट गए . हाथी दोड़ा दिए जाते तो नीली रौशनी मै ना लाशे दिखती ना खून ही समझ मै आता.
नील में डूबी रात के पो फटते ही उसी लखनऊ से नयी खबर आने लगी. नीली रैली से कड़क कड़क हलके लाल नोट निकलने लगे . नीले नाटक कि नायिका माया को हजार हजार के नोटों कि माला पहनाई गई. ये खबर फैलते ही लखनऊ से दिल्ली तक सब जुट गए माला के नोट गिनने में. जिसे देखो वही सवाल करने लगा कि कितने करोड़ कि माला है , इतना पैसा कहाँ से आया, पैसा किसका है, कितने नोट लगे है माला में . अरे भैया क्या करोगे जान के, क्या फर्क पड़ता है कि पैसा किसका है ,किसी रईस कि तिजोरी का है , पार्टी कार्यकर्ता का है या फिर आम आदमी के हिस्से का है. और पता भी चल जाये तो क्या कर लोगे, क्या उखाड़ पाए हो अब तक माया के हाथी के पैर का एक भी नाखून . लोग पहली माला के नोट भी नहीं गिन पाए थे कि माया ने दूसरी नोटों कि माला पहन ली . कर लो जो कर सकते हो. कुछ को मिर्ची भी लग रही होगी, वो तर्क देंगे कि रोक तो लगा ही दी माये के पार्को पर . लेकिन भैया रोक लगा कर क्या उन हाथियों से वो पैसा बनोगे, जो पैसा उन्हें बनाने में खर्च हुआ है.
वाह रे माया तेरी माया... करोडो के शोख कोडी कि काया.... तेरे राज में नारी नीलम होती रही (बुंदेलखंड), लेकिन तू थी कि अपनी ही मूरत बनवाती रही, बहुजन से सर्वजन कि बरी आई तो बहन जी ने बता दिया कि दलितों, इंसानों से ज्यादा बेजान हाथी अजीज है . गरीब कि चमड़ी हड्डी से चिपकती गयी और बहन जी मोटे ताजे हाथी बनवाती चली गई . ये हाथी प्रेम ही है ऐसा नहीं होता तो करोडो के ना चलने वाले ना वोट डालने वाले हाथियों कि इतनी बड़ी बारात खड़ी नहीं करती. लेकिन गनीमत है कि ये हाथी बेजान है जान होती तो जाने क्या होता . अब कोई गरीब इन बेजान हाथियों को देखकर खुद ब खुद इसके नीचे दबता चला जाये तो इसमें बिचारी मायावती का क्या दोष.

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

1411बाघों को बच्चो के लिए ही सही बचा लो ,


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


मेरे शेरो उठो, चलो शेर बचाए. जंगल का राजा आज रंक बनकर अपने अकेलेपन से डर रहा है. शेर की माँ को किसी ने मार दिया , किसी ने उसके बाप की खाल को अपने घर में सजाने के लिए उतार लिया . अब तो शक हो रहा है की कहीं वो भी तो मारा न गया हो , जिसके बारे में हम यहाँ बात कर रहे है. सरकारी आकडे बता रहे है कि 1411 बाघ बचे है, सोचना तो इस पर भी होगा की वाकई इतने बचे भी है या नहीं. क्यों की वर्ष 2003 की अधिकारिक जानकारी के मुताबिक देश में बाधों की कुल संख्या का 23 प्रतिशत मध्यप्रदेश में मौजूद था। मध्यप्रदेश में बाघों की यह संख्या 712 बताई गई. जिसमे पन्ना टाइगर रिजर्व में सबसे ज्यादा शेर बताये जा रहे थे. सेन कमेटी ने पन्ना टाइगर रिजर्व की रिपोर्ट में खुलासा किया की अब वहां एक भी बाघ नहीं है. यह क्षेत्र वर्ष 2008 से ही बाघविहीन हो गया है. एसे में 1411 में कितनी सचाई है ये तो जंगल ही जानता है.
शेर जंगल का राजा था, है, और रहेगा भी , लेकिन फर्क
सिर्फ इतना ही होगा की बस किताबो में ही . कल तक जब वो दहाड़ता था , तो पूरा जंगल काप जाता था . आज उसकी दहाड़ में दर्द की आवाज़ आती है . कल तक उसके कदमो की आहट सुनते ही सब बचाओ बचाओ कर के भागते थे , आज वो ख़त्म होने की कगार पर है , लेकिन वो बचाओ बचाओ भी नहीं चिलाता , कमबख्त राजा जो ठहरा. आखिर वो कैसे अपने ही जंगल में अपनी जिंदगी की दुहाही मांगे , और मांगे भी तो किस्से उस इन्सान से जो आज धरती का सबसे खतरनाक जानवर बन बैठा है . जिसकी पैसे कमाने हवास और शोक जंगल के शेर को जंगल के साथ खाता और खत्म करता जा रहा है .
1411 बाघ हमारा रास्ट्रीय पशु भी है . दुनिया के सबसे ज्यादा बाघ हमारे देश में ही हैं. शायद बाघों को मालूम था की हम इन्हें इतना बड़ा सम्मान देगें तभी ये यहा आकर बसे . लेकिन अब ये हमारी इंसानियत देख कर शर्मिंदा होते होगे की राष्ट्रिय सम्मान देकर किस तरह इन्हें मारा जा रहा है, बचाने की कोशिस भी नहीं हो रही है. ये दुर्भाग्य की बात है शेर के लिए भी और हमारे लिए भी. सरकार ने भी इन्हें बचने की लिए योजना बनाई लेकिन अमलीजामा न पहना पाई . सरकारी रिकार्ड कुछ कहते और जंगल की कहानी कुछ और ही बाया करती . नेता के भरोसे इन्हें छोड़ा भी नहीं जा सकता . आज हालत इतने नाजुक है की अब जरा सी लपरवाही बरती तो बाघ तारीख में दर्ज हो जाएगे .

अब जरा सोचो की हम अपनी आने वाली नस्ल के लिए क्या छोड़ेगे, पन्नो पर बाघों के चित्र, विकिपीडिया पर उसकी जानकारी , कहानियो में शेर की बहदुरी के किस्से , शेर मार जायेगा लेकिन घास नहीं खायेगा जैसी कहावते, ज्यादा से उदार हुआ और मांग बड़ी तो कमाई के लिए एक अध् फिल्म बनादेगे .या फिर रास्ट्रीय चिन्ह के रूप में चार मुह वाला शेर छोड़ेगे . लेकिन जब आने वाली नस्ल में से ही कोई सिरफिरा हमारा रास्ट्रीय पशु बाघ को देखने कि जिद कर बैठा तो सोच लो क्या दिखाओगे ..... क्या समझोगे....... क्या कहोगे......... की हम तो गुम थे कमाने में हमने कुछ नहीं कर सके ? या फिर बाघ को सहेज के रखेगे........
फ़ेसला आप के ही हाथ है बीच का कोई रास्ता नहीं है, जंगल के लिए नहीं , बाघ के लिए, अपने लिए न सही, देश के लिए न सही बच्चो के लिए ही सही बचा लो बाघों को.




सोमवार, 11 जनवरी 2010

विडम्बनओ का खेल , या खले की विडम्बना : हॉकी


विडम्बनओ का खेल , या खले की विडम्बना , इसे समझाना भी बड़ी विडम्बना है . ये फक्र की बात है की हॉकी हमारा रास्ट्रीय खेल है, लेकिन ये लानत है की आज वही अपना वजूद तलाशने की कोशिश में भटक रहा है . जिस खेल ने भारत को नयी पहचान दी, बादशाहत दी आज वही खेल मैदान पर धुल चाट रहा है . ये विडम्बना ही है की जिस खेल के खिलाडियो को मैदान जीत के लिए लड़ना चाहिए, उन्हें मैदान के बहार मौर्चा खोलने पर मजबूर किया जा रहा है . हॉकी की तारिख देखे तो आज की हालत पर रोना ही आयेगा , १९२८ से शुरू हुआ भारतीय हॉकी का सफ़र कई कीर्तिमान बनता चला . आज भी भारत के ओलंपिक खेलों में गोल्ड मेडिल की फेहरिस्त में हॉकी के सबसे ज्यादा पदक है . १९३२ के ओलंपिक खेलों में भारत ने अमेरिका को २४-१ से जो मत दी थी वो आज भी बरक़रार है . यही हॉकी है जिसने बर्लिन की जमीं पर हिटलर को चुनोती दी थी ओ०र जीत भी हासिल की . दादा ध्यानचंद को हॉकी की दुनिया का सर्वश्रेस्ट खिलाडी घोषित किया , भारत के पहले खिलाडी के रूप में दादा ध्यानचंद की मूर्ति भी विदेश ज़मीन वियना में लगाई गई . गुलामी से आज़ादी तक जीत का सिलसला हॉकी ने ही बरक़रार रखा . जब हॉकी के खिलाडी दुनियाभर में जीत का झंडा बुलंद कर रहे थे तो यक़ीनन आज़ादी के परवानो में भी नया जोश भरने का कम भी किया होगा . आज़ादी के साथ भारतीय हॉकी ने १९४८ में जीत का तोफा दिया , 1948 के लंदन ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम की जीत पर आजाद हिंदुस्तान का तिरंगा पहली बार लंदन के वेम्बली स्टेडियम में लहराया गया , सार्जनिक रूप से पहली बार विदेशी जमीं पर हमारा रास्ट्रीय गान 'जन-गण-मन' भी वही गूंजा . तब हिन्दुस्तानियों का सिना जरूर छोड़ा हुआ होगा . लेकिन आज के हालात बिलकुल बरक्स है . ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करना मुश्किल होता है. रास्ट्रीय खेल होने के बावजूद बहुत कम लोग ही इसे खेलना चाहते है . जो खेल्चुके वो कभी भी अपने बेटे , भाई जा जानने वालो को इस खेल को खेलने की सलाह नहीं देते . सरकार ने भी इसे बदने४ के लिए कोई खास कदम नहीं उठाये . भोपाल में हॉकी के नेशनल और इंटरनेश्नल खिलाडी आसानी से मिल जायेगे, जो देश के लिए खेलने और जीतने के बाद भी, उनके पास आज न दोलत है और न है नोकरी . एक अंतररास्त्री खिलाडी जिनकी भोपाल बाबेअली हॉकी स्टेडियम के बहार चाय की दुकान है, उनके अनुसार वो दादा ध्यानचंद के साथ विंग पर खेला करते थे . उनको दुकान क्यों खोलनी पड़ी ये बताने की जरुरत नहीं है . ये विडम्बना ही है कई एसे खिलाडी गुमनामी के अन्देरे में दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे है . रास्ट्रीय खेल होने के बावजूद हॉकी को तवज्जो क्यों नहीं दी जाती है , क्यों क्रिकट से हॉकी हार गया है जिसने इतने यश दिया हिन्दुस्तानियों को. जब नेता देश चलने के नाम पर सारी सुखसुविधा मिलने के बाद भी पगार लेते है तो फिर अपनी पढाई, अपनी आवारगी, घर तक छोड़ कर जो दिन रत मेहनत करता है, अपनी टीम अपने देश को जितने के लिए लड़ता है तो फिर उन खिलाडीओ को उसका वाजिब मेहनताना क्यों नहीं दिया जाता है . क्यों क्रिकेट के परपंच में कई नेता कूद पड़ते है , क्यों हॉकी को बचने कोई नेता नहीं आता ये विडम्बना ही है. इसमें पैसा नहीं है बाजार नहीं है . ये भी विडम्बना ही है की क्रिकेट का एक खिलाडी जितना टेक्स भर देता है , उतना पैसा पूरी हॉकी टीम साल भर में भी नहीं कमापति है. विदेशी दोरे के दोरान भी भारतीय हॉकी टीम पाकिस्तान से पाच गुना कम भत्ता मिलता है.

ऐसे में कल्पना करना की दिल्ली में होने वाले २०१० हॉकी वोल्ड कप में , हमारे खिलाडी कुछ कमाल दिखाय्र्गे कोरा स्वप्न ही होगा . वो खिलाडी क्या जीत पायेगा जिसका दिल और दिमागहार गया हो अपने देश के सिस्टम से .

चलो उठो कुछ करते है अपने रास्ट्रीय खेल हॉकी को बचाने के लिए .........

रविवार, 27 दिसंबर 2009

पाकिस्तान से आती खबरे डराती है......

पाकिस्तान से आती खबरे डराती है । सुबह जब टीवी खोलो तो कभी इस्लामाबाद, कभी पेशावर, कभी कराची से धमाके की खबर आती है । खबरों की दुनिया में रहते हुए पाकिस्तान के टीवी चैनलों को करीब से देखने का मोका मिला । लाख तल्खियों के बावजूद दोनों मुल्को में खबरों का अदन प्रदान होता है । खबरों की अदला बदली में वहा से खोफ, चिखोपुकर, और दर्दनाक मंज़र आता है , और यहा से हमेशा की तरह अमन सुकून ,दोस्ती और मनोरंजन की बातें ही अक्सर जाती है । हमारी मनोरंजक खबरे वह के अवाम को बड़ा सूकून पहुचती है ।
पाकिस्तान में आज चारो तरफ खोफ का माहोल है, इस खोफ से खुदा का घर (मस्जिद ) भी नहीं बच पाई है । खोफ को दूर करने के लिए मनोरंजन अहम् भूमिका निभाता है, लेकिन पाक के अधिकांश इलाको में मनोरंजन के साधनों को पेड़ो पर लटकाया जा चूका है । फिल्म कम बनती है , बम्बई जेसी कोई फ़िल्मी नगरिया भी नहीं है, ऐसे में न्यूज़ चैनल के जरिये हिंदुस्तान की मनोरंजक खबरों का ही सहारा रहता है। पाक के न्यूज़ चैनल के एक घंटे के बुलेटिन के इंटरटेनमेंट न्यूज़ में बालीवुड की खबरे भरी रहती है । सेफ करीना की कहानी, शिल्पा का निकाह ,और पा, थ्री इडियट की लॉन्चिंग जेसी हर खबर और दो चार हिंदी फिल्मो के गाने मिल ही जाते है। दिनभर के खोफ को कम करने के लिए ये बड़ा कम करते है । भले ही पाकिस्तान में भारतीय फ़िल्मों के प्रदर्शन पर प्रतिबंध है। 1965 के युद्ध के बाद सरकार ने केवल पांच वर्षों के लिए प्रतिबंध लगाया था जो आज तक भी बरक़रार है। लेकिन आज भी वहा बाजारों के फुटेज देखो तो भारतीय हिरोइनों के पोस्टर से दुकानों की दीवारे मिल जाती है , जो ये साबित करता है की आज भी लोगो में भारतीय फिल्मो के वो जूनून बरक़रार है।
बड़े दिनों बाद पाकिस्तान से एक अच्छी खबर आई । पाकिस्तानी फेशन शो , रेम्प पर बे खोफ कैटवाक करती मॉडेलस । भारतीय मिडिया ने भी इसे प्रमुखता से लिया , लेकिन ऐसी खबरे २ चार सक में खबी कभार ही आती है । यहा के गाने आज भी पाकिस्तानियो के ज़ेहन में है । बीते दिनों जब खबर के सिलसिले पाक के एक रहनुमा को फोन लगाया कालर टोंस में ऐ दिले नादान गाना बजा, सुन कर काफी अचम्भा लगा । लेकिन अहसास हुआ की सुर को सरहदों से नहीं रोका जा सकता है । आज भी काबुली वाले की धुन यहा भी लोगो के दिल में राज कर रही है , लेकिन शायद उस पश्तूनी धुन को अब वहा कोई काबुलीवाला टीले पर चढ़ कर नहीं बजाता होगा। आखिर बजाये भी तो कैसे टीले बारूद के ढेर और काबुलीवाले का घर बंकर में तब्दील हो गए है ।
इन बातो का देख सुनकर ये बात तो साफ होती है की वहा के लोगो को मनोरंजन की काफी जरुरत है । और इसके लिए पाक टीवी चैनल्स की काफी कोशिस कर रहे है। लेकिन कुछ लोग नहीं चाहते है की ये दुरी कम हो , दुरी कम होगी तो उनके चहरे दे नकाब भी हटेगा । इसी लिए धर्म के ठेकेदार बन्ने वाले धर्म के खिलाफ मनोरंजन के साधनों को बताते है। लेकिन उन मजहब के ठेकेदार उन लाखो दिलो की बात क्यों नहीं सुनते जिसमे आज भी हिन्दुस्तानी तराने गुनगुनाते है।
पड़ोस में ख़ुशी हो, ढोल बजे तो दिल को अच्छा लगता है , लेकिन जब उसी पड़ोस में आग लगी हो तो चैन की नीद नर्म बिस्तर भी नहीं दे पाते है। लाख कोशिशो के बाद भी जब पड़ोस में सुख , ख़ुशी, मनोरंजन के साधन देने बाद भी जब निराशा हाथ लगती है तो काफी दुःख होता है, दुःख और बढ़ जाता है जब ये पता चलता है की ये सब चंद लोगो की ही शाजिश है । ऐसे में संगीत और मनोरंजन का ये सिलसिला जरी रहे शयद यही दुरी को कुछ कम कर सके......

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

मान्यता दे दी तो रिश्ते का नाम भी बता दो .......


माफ़ करना बड़े दिन बाद आया हूँ-----

बाजारों में अब खुले आम गुड मिलेगा , गुड पर मख्खी भी बैठेगी लेकिन उससे कोई परहेज नहीं करेगा , उसे उड़ाया नहीं जा सकेगा , वो मख्खी खुद उड़कर कई जगह जायेगी , कई बीमारी फेलाएगी , कई जायका , कई खाना, कई घर ख़राब करेगी . ये कोई अपराध नहीं .. दिल्ली हाई कोर्ट ने भी फेसला सुना दिया अपराध नहीं आदमी से आदमी और ओरत से ओरत का प्यार----
हो भले अप्रकतिक मगर, १८ साल के बाद आदमी से आदमी और ओरत से ओरत का प्यार अपराध नहीं , लेकिन इसे १८ साल के नेचे कैसे रोक सकेगे , क्या बच्चे दोस्त दोस्त ओर सहेली सहेली के खेल में ये खेल नहीं जुड़ जायेगा . मैदानों से खेल पहले है कमरे में टीवी पर आगया है ये कब आगे बाद जायेगा, सोचना होगा ,.

खेल का ही नहीं माहोल तो बाजारों का भी बदलने वाला है, पहले प्यार पार्को में पेड़ के पीछे परवान चडा करता था , अब पेड़ की आड़ अपराध है , खुले माल में लड़का लड़के को चूमे गा , लड़की लड़की की कमर में हाथ दल चलेगी,वही दो दोस्तों का गले में हाथ डाल गुमने पर भी उंगलिया उठेगी . मोहल्ले में दो लड़को के प्यार की बाते की जाये गी, की राजू से गुड्डू का लफडा चल रहा है , सोनू पप्पू के पेचे लगा है . होगा रोका नहीं ता

पुलिस भी कमर कास ले नए केस के लिए, और हमें भी अपने कान पक्के करने होगे , अब वो दिन दूर नहीं जब एक २६ से ३० साल का लड़का थाने में आये गा और अपने साथ ३ साल तक होते आये कुकृत की दास्ताँ सुनाए गा . कोई किसी पर आरोप लगाये गा की शादी का लालच दे कर बनाया सम्बन्ध ,क्या होगा ? धरा ३७७ की उप धरा बनाई जायेगी . मिडिया को नया मसाला मिल जायेगा . नयी खबर ब्रेक होगी , ऍम ऍम एस का बाज़ार गर्म होगा , चलती गाड़ी में ४ गे के काम को ५ वा फिल्म बनयेगा यू ट्यूब पर डाल देगा जिसका मज़ा दुनिया उठ्येगी . टाइटल होगा इंडियन दोस्तों का प्यार कितना मीठा कितना गहरा .

बच्चो में जिज्ञासा बड रही है वो भी जानना च रहे है की, होमो ,लेस्बियन मीठा , गुड, चोकलेट किसे कहते है , अभी बहस जरी है सेक्स शिछा जोड़ने की , लेकिन अब इस में नया अद्ध्याय जुडेगा , मर्द मर्द का सम्बन्ध , ओरत ओरत का सम्बन्ध , कितना अजीब लग रहा है न ये उतना ही अजीब है जब एक कुत्ते को दुसरे कुत्ते को सुघ्ते देखना , लेकिन जानवर भी हमसे कितने समझदार है २१ वी सदी में भी उन्होंने अपनी प्राक्रतिक क्रिया में परिवर्तन नहीं किया , तो हम कैसे कर सक ते है , कर सकते है हम कुत्ते थोडी न है , मम तो उससे भी गए बीते है .
मान्यता दे दी तो उस अप्रक्रतिक रिश्ते का नाम भी बता दो .......