शुक्रवार, 16 मई 2008

अपनी बात

गुलिस्ता बनते गए मीटते गए ,करवा आते गए जाते गए ,समय का चकरा अपनी ही रफ्तार से उही घूमता रहा हम किस राह से चले थे किस मंजिल की तरफ की तरफ .....शयेद हम अपनी राह से भटक गए थे या यू कहे की व्हो ह्जो भी हुआ सब उम्र का तकाजा था ....समय ने फुर पलटी मारी और हमे उस मच्मच भरी जींदगी से अलग मन मंथन की दुनिया मे ला दीया । खेर व्हो उत पटक भी हमारी ही चाह थी और ये लेखनी भी हमारी ही सोच का ही नतीजा है । की हमे तलव्र से कलम की राह पर ले आई , वक्ते भी हमारा खूब साथ निभाता रहा जैसे पुराना याराना हो ....समय के साथ फिजा बदली ,माहोल बदला नया योवन ,नई बाहर हमारे लिए नए दवार खोलते गई नई दिशा मे आगे बदने को हम भी पुराने आत्मविश्वास के साथ चल पडे पत्रकारिता की और........

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